Saturday, January 2, 2010

मुसाफिर..!!

मैं तो हूँ बस एक अन्जान सा मुसाफिर
सदा चलना ही रही है मेरी नियति
जो कभी मैं थका, थमा या रुका
कभी कम ना होने पाई मेरी यह गति

रास्ते में जो भी मिले रोड़े मुझे
उनको मैं मील का पत्थर बनाता गया
भले चला था मैं अकेला पर
साथियों के गीत गुनगुनाता गया

मेरे साथ रहा कभी तारो का दल
कभी उन्मुक्त गगन ने दिया संबल
कभी संग झरने बहते रहे कल कल
और कभी साथ चली पवन चंचल

कभी सूरज को दूर कहीं डूबते देखा
कभी चंद्रमा को बादलों से जूझते देखा
कभी खुद को गिरते, सम्हलते देखा
कभी कुहासे को अपनी चादर में सबको घेरते देखा

कभी देखा ख़ुशी को बिखरते हुए
कभी देखा गम को सिमटते हुए
कभी देखा सावन को बरसते हुए
कभी देखा यादों को बिसरते हुए

कभी देखा शहरों को बसते हुए
कभी देखा बस्तियों को उजड़ते हुए
कभी देखा गैरों को मिलते हुए
कभी देखा अपनों को बिछड़ते हुए

पर मुझे इन सब से क्या
मैं तो आज यहाँ हूँ, कल फिर मुझे चले जाना है
जो आज तलक मेरा अपना था, कल वो मेरे लिए बेगाना है
क्योंकि मैं तो एक मुसाफिर हूँ, मेरा कब अपना कोई ठिकाना है..!!

जीवन..!!

सोचता हूँ कभी अगर ऐसा होता
जीवन में न कोई गम होता
सिर्फ उमंग, उत्साह होता...

पर अगर जीवन में न कोई दर्द होता
तो क्या ख़ुशी का कोई एहसास होता
क्या कभी उत्सव, उल्लास यथार्थ होता...

फिर न तो कुछ पाने के चाह होती
न ही कोई भी प्रयास होता
और न ही कोई विश्वास होता....

तो फिर क्या यह जीवन, जीवन सा होता ?

Friday, January 1, 2010

इक अनजान साया..!!

अक्सर मेरे विचारों मे इक अनजान साया,
दूर कहीं से बेधड़क चला आता था,
और मेरे मनं की उजली चादर में कई सलवटें बना जाता था |

बहुत ढूँढा उसको मैंने,
की कहाँ से आता था और अचानक,
कहाँ को चला जाता था |

पर बहुत अरसे तक कभी भी उसका,
ना तो मुझे कोई पता मिला और,
ना ही उसका कोई ठिकाना समझ आता था |

फिर एक दिन यों ही खुद में झाँक कर देखा मैंने,
तो पता चला की वो तो मेरा ही अक्स था,
जो मेरे विचारों में आता जाता था |

जो दिन के उजाले में और रातों के अँधेरे में,
मुझे मेरी अच्छाई और बुराई से अवगत कराता था,
जो मुझ से निकल के मुझ में ही समां जाता था|

उस दिन से आज तक,
मैंने अपने मन के दरवाजे खोल रखे हैं,
वो साया अब अक्सर आता है और मुझे,
मुझ से मिला कर फिर चला जाता है |

मिटटी..!!

यह मिटटी भी एक अजीब चीज है
हर जगह होती है, हर जगह पाई जाती है
चाहे कहीं भी मैं चला जाऊं तब भी
घर की मिटटी मुझसे नहीं भुलाई जाती है |

उस मिटटी की याद जो दिल में बसी है
उसकी खुशबू, वो उसकी रंगत
वो यादें और उसकी चाहत
मुझसे न की कभी, यह रुसवाई जाती है |

जाने कैसे दूर चले जाते हैं सब इससे
कैसे बना देते हैं पराया इसको
ना सोते, ना जागते,
मुझसे न यह कभी भी परायी, बनाई जाती है |

बूँदें..!!

कभी देखा है बूंदों को.
घर की छत से टपकते हुए
एक दुसरे से होड़ लगाते
खुद तो बड़ा साबित करने के लिए लड़ते हुए |

इंसान भी कुछ ऐसे ही होते हैं
साथ साथ रहते हुए, हँसते हुए
एक दुसरे से होड़ लगाते
खुद तो बड़ा साबित करने के लिए लड़ते हुए |

पर जरा उन बूंदों को ध्यान से तो देखो
चाहे कितना भी लड़ लें, झगड़ लें
जमीं पर आ कर फिर हिल मिल जाती हैं
हँसते हुए मुस्कुराते हुए |

क्या हम इंसान ऐसे नहीं हो सकते
क्यों नहीं रह सकते हम
सबसे हिल मिल के
हँसते हुए मुस्कुराते हुए |