Saturday, January 2, 2010

मुसाफिर..!!

मैं तो हूँ बस एक अन्जान सा मुसाफिर
सदा चलना ही रही है मेरी नियति
जो कभी मैं थका, थमा या रुका
कभी कम ना होने पाई मेरी यह गति

रास्ते में जो भी मिले रोड़े मुझे
उनको मैं मील का पत्थर बनाता गया
भले चला था मैं अकेला पर
साथियों के गीत गुनगुनाता गया

मेरे साथ रहा कभी तारो का दल
कभी उन्मुक्त गगन ने दिया संबल
कभी संग झरने बहते रहे कल कल
और कभी साथ चली पवन चंचल

कभी सूरज को दूर कहीं डूबते देखा
कभी चंद्रमा को बादलों से जूझते देखा
कभी खुद को गिरते, सम्हलते देखा
कभी कुहासे को अपनी चादर में सबको घेरते देखा

कभी देखा ख़ुशी को बिखरते हुए
कभी देखा गम को सिमटते हुए
कभी देखा सावन को बरसते हुए
कभी देखा यादों को बिसरते हुए

कभी देखा शहरों को बसते हुए
कभी देखा बस्तियों को उजड़ते हुए
कभी देखा गैरों को मिलते हुए
कभी देखा अपनों को बिछड़ते हुए

पर मुझे इन सब से क्या
मैं तो आज यहाँ हूँ, कल फिर मुझे चले जाना है
जो आज तलक मेरा अपना था, कल वो मेरे लिए बेगाना है
क्योंकि मैं तो एक मुसाफिर हूँ, मेरा कब अपना कोई ठिकाना है..!!

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